उत्तराखंड जईवा मुनफिल खएवा
ब्रह्म अगनी पहिरवा चिरं ।
निर्झर झरने अमृत झरिया
उं मन हुवा थिरंं॥
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भनंत गोरखनाथ काया गढ़ लेवा
काया गढ़ लेवा, जुगी जुगी जीव ॥
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यह तन साँच , साँच का घरवा।
रुध्र पलट अमीरस भरवा ।।
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कन्दर्प रूप काया का मंडन अविरथा की उलिंचे।
गोरख कहे सुनो रे भोंदू अरंड अभी कट सींचो ॥
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अवधू आहार तोड़ो, निद्रा मोडो कबहु न होएबो रोगी।
छटे छमाहे काया पलटीबा नाग बंग बनस्पति जोगी ॥
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अव्धो सहस्त्र नदी पवन चलेगा कोटि झमका नादं ।
बहत्तर चंदा बैसंख्या किरण प्रगति जब आदन ॥
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