
कुशब्द को सु शब्द करे । ऐसा विचार मछिन्द्र कहे ॥
साधू दिसती वेगळांले ।
परी ते स्वरूपी मिळाले ॥
अवघे मिळोनी एकची झाले ।
देहातीत वस्तू ॥
साधू दिसती वेगळांले ।
परी ते स्वरूपी मिळाले ॥
अवघे मिळोनी एकची झाले ।
देहातीत वस्तू ॥
गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी ,अपनी आत्मा एपी विचारो, सोवो पाँव पसरी,“ऐसा जप जपो मन ली | सोऽहं सोऽहं अजपा गई ,असं द्रिधा करी धरो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान ,नासा आगरा निज ज्यों बाई | इडा पिंगला मध्य समाई ||,छः साईं सहंस इकिसु जप | अनहद उपजी अपि एपी ||,बैंक नाली में उगे सुर | रोम-रोम धुनी बजाई तुर ||,उल्टी कमल सहस्रदल बस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश || गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वसा |,सगुरा होई सो भर-भर पिया, निगुरा जे प्यासा । ।,